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ए॒वेन्द्रा॒ग्निभ्या॒महा॑वि ह॒व्यं शू॒ष्यं॑ घृ॒तं न पू॒तमद्रि॑भिः। ता सू॒रिषु॒ श्रवो॑ बृ॒हद्र॒यिं गृ॒णत्सु॑ दिधृत॒मिषं॑ गृ॒णत्सु॑ दिधृतम् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evendrāgnibhyām ahāvi havyaṁ śūṣyaṁ ghṛtaṁ na pūtam adribhiḥ | tā sūriṣu śravo bṛhad rayiṁ gṛṇatsu didhṛtam iṣaṁ gṛṇatsu didhṛtam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व। इ॒न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म्। अहा॑। वि। ह॒व्यम्। शू॒ष्य॑म्। घृतम्। न। पू॒तम्। अद्रि॑ऽभिः। ता। सू॒रिषु॑। श्रवः॑। बृ॒हत्। र॒यिम्। गृ॒णत्ऽसु॑। दि॒धृ॒त॒म्। इष॑म्। गृ॒णत्ऽसु॑। दि॒धृ॒त॒म् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:86» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:32» मन्त्र:6 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिन (इन्द्राग्निभ्याम्) सूर्य्य और अग्नि से (अहा) दिनों को और (अद्रिभिः) मेघों से (घृतम्) घृत जैसे (न) वैसे (पूतम्) पवित्र (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य (शूष्यम्) बल में उत्पन्न (श्रवः) अन्न होता है तथा (गृणत्सु) प्रशंसा करते हुए (सूरिषु) विद्वानों में (बृहत्) बड़े (रयिम्) धन को जो दोनों (दिधृतम्) धारण करें तथा (गृणत्सु) स्तुति करते हुए विद्वानों में (इषम्) विज्ञान को (वि, दिधृतम्) विशेष धारण करें (ता) वे दोनों (एव) ही यथावत् जानने के योग्य हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जो विद्वानों में आप लोग निवास करें तो बिजुली और मेघ आदि की विद्या को जानें ॥६॥ इस सूक्त में इन्द्र, अग्नि और बिजुली के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छियाशीवाँ सूक्त और बत्तीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! याभ्यामिन्द्राग्निभ्यामहाऽद्रिभिर्घृतन्न पूतं हव्यं शूष्यं श्रवो जायते गृणत्सु सूरिषु बृहद्रयिं यौ दिधृतं सूरिषु गृणत्स्विषं वि दिधृतं ता एव यथावद्वेदितव्यौ ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एव) (इन्द्राग्निभ्याम्) सूर्य्याग्निभ्याम् (अहा) अहानि (वि) (हव्यम्) हव्यं ग्रहीतुमर्हम् (शूष्यम्) शूषे बले भवम् (घृतम्) आज्यम् (न) इव (पूतम्) पवित्रम् (अद्रिभिः) मेघैः (ता) तौ (सूरिषु) विद्वत्सु (श्रवः) अन्नम् (बृहत्) महत् (रयिम्) (गृणत्सु) स्तुवत्सु (दिधृतम्) धरतम् (इषम्) विज्ञानम् (गृणत्सु) (दिधृतम्) ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यदि विद्वत्सु यूयं निवसतः तर्हि विद्युन्मेघादिविद्यां विजानीत ॥६॥ अत्रेन्द्राग्निविद्युद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षडशीतितमं सूक्तं द्वात्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! तुम्ही विद्वानांचा संग केल्यास विद्युत, मेघ इत्यादीची विद्या जाणाल. ॥ ६ ॥